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Society Class Hindi

 

 

 

छात्रों के विभिन्न प्रश्नों का उत्तर दिया गया (11:27:12 AM)

भारत में जाति व्यवस्था की उत्पत्ति (11:41:10 AM)

  • भारत में जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के संदर्भ में चिंतकों के अनेकों मत हैं परंतु वर्तमान में सर्व स्वीकृत मत मैक्समूलर की आर्यों के आगमन/आक्रमण के सिद्धांत को है। 
  • इस सिद्धांत के अनुसार जो पर्शिया से सप्त सैन्धव क्षेत्र में आए वो मुख्यतः श्वेत वर्ण के थे जबकि स्थानिक लोग कृष्ण वर्ण के थे। अतः समाज दो वर्गों में विभक्त हुआ यथा श्वेत वर्ण और कृष्ण वर्ण 
  • नोट- यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि वर्ण शब्द का शाब्दिक अर्थ रंग है साथ ही कास्टा जो एक पुर्तगाली शब्द है का आशय भी रंग ही होता है 
  • यही कारण है कि रिजले का यह मत रहा है कि प्रारंभ में जाति व्यवस्था नृजातीय रही होगी परंतु कालांतर में इन कृष्ण एवं श्वेत वर्ण नृजातियों का विलय शुरू हुआ, यह विलय इस कारण था कि श्वेत वर्ण के लोग स्थानीय कृष्ण वर्ण के लोगों से महिलाओं/लोगों से विवाह कर रहे थे 
  • इसके परिणामस्वरूप श्वेत वर्ण ने यह व्यवस्था अपनाई की उनकी संतति चाहे जिस भी वर्ण की हो, श्रेष्ठ मानी जाएगी। यही कारण है कि जाति व्यवस्था को जन्म आधारित करते हुए चार वर्गों में वर्गीकृत किया गया है यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं दलित। 
  • इस चतुषवर्णीय व्यवस्था को ऋग्वेद के 10 वें मंडल में तथा मनु स्मृति के धर्म-कर्म सिद्धांत के आधार पर स्वीकृति प्राप्त होती है। 
  • एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार यद्यपि यह जाति व्यवस्था धार्मिक आधार पर स्थापित की गई जो पवित्र-अपवित्र के आधार पर द्विज एवं अद्विज पर आधारित करता है। परंतु वास्तविक धरातल पर यह जाति व्यवस्था धार्मिक (रिचुअल डाईमेंशन) एवं संरचनात्मक/सामाजिक घटकों (रिचुअल एण्ड सेकुलर डाईमेंशन) के  मिले जुले प्रभाव पर आधारित है
    • धार्मिक (रिचुअल डाईमेंशन)जिसमें पवित्र एवं अपवित्र के आधार पर चतुषवर्णीय विभाजन ) । 
    • संरचनात्मक/ सामाजिक घटक (सेकुलर डाईमेंशन)- आर्थिक (भूमि संपत्ति), राजनीतिक (जनसंख्या बल), सामाजिक (शिक्षा)
  • एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार किसी स्थान विशेष पर दिए गए समय मे जाति व्यवस्था इन दो घटकों का सम्मिलित प्रभाव होती है 
  • यदि किसी कारण से किसी स्थान विशेष पर कोई जाति धार्मिक रूप से तो श्रेष्ठ है किन्तु आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक घटकों में कमजोर है तो उस स्थान विशेष पर जाति की वरीयता का क्रम बदल जाता है 
  • अतः यह कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की निरन्तरता का कारण धार्मिक घटक हैं परंतु परिवर्तन का कारण आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक घटक हैं। और इन घटकों के बदलने के क्रम में जाति व्यवस्थाएं बदलती रही हैं। 

संस्कृतिकरण, पाश्चात्यीकरण और आधुनिकीकरण (12:22:29 PM)

  • प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत में श्रीनिवास ने यह पाया कि जब भी आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक रूप से कोई भी जाति शक्तिशाली हुई है तो वह उच्च जातियों की जीवनशैली को अपना कर उच्च जाति की श्रेणी हासिल करने का प्रयास करती है। इस प्रक्रिया को संस्कृतिकरण कहा जाता है। 
  • वहीं दूसरी तरफ पाश्चात्यीकरण से आशय उस प्रक्रिया से है जिसके अंतर्गत पाश्चात्य जीवन शैली को अपनाते हुए (अंधानुकरण करते हुए) उच्च जीवन स्तर का वर्ग हासिल करने के प्रयास किये जाते हैं। 
  • दीपांकर गुप्ता के अनुसार पाश्चात्यीकरण को आधुनिकीकरण समझना एक वैचारिक भूल है। 
  • आधुनिकता से आशय नवोन्मेष की स्वीकार्यता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण को वरीयता तथा परिवर्तन की स्वीकार्यता से है। 

ब्रिटिश काल के पश्चात जाति व्यवस्था (12:42:29 PM)

  • श्रीनिवास के अनुसार ब्रिटिश काल में भारतीय पुनर्जागरण तथा विभिन्न सामाजिक सुधारों के कारण जाति व्यवस्था की धार्मिक व्याख्या पर ही प्रश्न उठाए गए जो समता के सिद्धांतों पर आधारित थे। 
  • इस संदर्भ में अस्पृश्यता को आधार बनाते हुए जाति की धार्मिक प्रासंगिकता को चुनौती दी गई। 

अस्पृश्यता एवं जाति व्यवस्था के संदर्भ में गांधी और डॉ अंबेडकर के विचारों पर चर्चा की गई (12:46:36 PM)

गांधी और डॉ अंबेडकर का जाति व्यवस्था पर दृष्टिकोण (1:11:56 PM)

  • अस्पृश्यता से आशय जाति व्यवस्था के उस दृष्टिकोण से है जिसके अंतर्गत समाज के निचले पायदान पर पायी जाने वाली जातियों का सामाजिक बहिष्करण किया जाता है जो उस समूह के सदस्यों की जीवन संभावनाओं को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है 
  • गांधी जी के अनुसार यह अस्पृश्यता वस्तुतः धर्म में आए भ्रष्टाचार के परिणामस्वरूप है। 
  • गांधी जी का यह तर्क रहा है कि किसी भी समाज में श्रम विभाजन एक प्राकृतिक प्रक्रिया है इसीलिए जाति व्यवस्था भी एक स्वाभाविक घटना है परंतु धर्म में हुए भ्रष्टाचार के परिणामस्वरूप कुछ कार्यों को महत्वपूर्ण तथा अन्य को हीन समझा गया जिससे समाज में अस्पृश्यता जैसी समस्याएं तथा जाति आधारित असमानता ने जन्म लिया 
  • गांधी जी के अनुसार स्वच्छता किसी भी समाज का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है जिसे ईश्वर के सबसे प्रिय हैं, को दिया गया जिन्हे गांधी द्वारा हरिजन की संज्ञा दी गई। 
  • जाति व्यवस्था के उन्मूलन के संदर्भ में गांधी जी का यह तर्क था कि जाति व्यवस्था स्वयं में प्राकृतिक है परंतु उसमें व्याप्त असमानता की सोच प्रमुख चुनौती है जिसे बदला जाता चाहिए।
  • अतः इस असमानता की सोच को समाप्त किया जाना चाहिए। यदि इस सोच को समाप्त किये बिना जाति को समाप्त किया गया तो उसके स्थान पर जो भी वर्गीकरण आएगा वह असमानता उसमें अपना स्थान बना लेगी 
  • वहीं दूसरी तरफ डॉ अंबेडकर का यह तर्क था कि जाति व्यवस्था में असमानता एवं अस्पृश्यता वस्तुतः राजनीतिक शोषण का परिणाम है एवं जब तक राजनीतिक रूप से यह समाज सशक्तिकृत नही होगा, असमानता को समाप्त नही किया जा सकता है। 
  • डॉ अंबेडकर के अनुसार इस जाति व्यवस्था के मूल में ही असमानता है अतः जाति व्यवस्था का पूर्णशमन किये बिना असमानता समाप्त नही होगी। 
  • गांधी जी के हरिजन शब्द को नकारते हुए अंबेडकर ने दलित शब्द को ही प्राथमिकता दी साथ ही यह भी चिन्हित किया कि यह सम्मानसूचक शब्द होना चाहिए। 
  • राजनीतिक सशक्तिकरण हेतु डॉ अंबेडकर ने पृथक निर्वाचक मंडल की मांग की जिसे ब्रिटिश द्वारा स्वीकार भी किया गया परंतु गांधी जी के विरोध के पश्चात अंततः पूना पैक्ट में यह निर्णय लिया गया कि एक जाति जनगणना कराते हुए अस्पृश्य जातियों के लिए राजनीतिक आरक्षण की व्यवस्था की जाएगी। 

Topic for the next class 21 वीं सदी में जाति व्यवस्था, दलित प्राख्यान