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Polity Class Hindi

शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24) :(11:00:01 AM) 

मानव तस्करी और बंधुआ श्रम का निषेध (अनुच्छेद 23)

  • मानव शरीर का देह व्यापार एवं बलात श्रम पर रोक। 
  •  नागरिकों एवं गैर-नागरिकों दोनों लिए उपलब्ध। 
  • राज्य का संवैधानिक कर्तव्य और निजी व्यक्ति पर प्रतिबन्ध। 
  • वस्तु के रूप में मानव शरीर का क्रय-विक्रय दंडात्मक अपराध है। 
  • देवदासी प्रथा सहित किसी भी तरीके का अनैतिक व्यापार प्रतिबंधित है।
  • मई 2022 में सर्वोच्च न्यायलय के 3 न्यायधीशों की पीठ ने वेश्यावृति को विधिक रूप से मान्यता प्रदान की और इस कार्य में लगे हुए लोगो के लिए गरिमामय जीवन तथा विधि का संरक्षण सुनिश्चित करना आवश्यक बताया।
  • बुद्ध देव कर्मकार बनाम पश्चिम बंगाल केस 2011 में सर्वोच्च न्यायलय ने वेश्यावृति में लगे लोगों और उनके बच्चों के लिए अनुच्छेद 21 उनके अधिकार का अभिन्न अंग माना।
  • स्वैच्छिक रूप वयस्क वेश्यावृति गैर क़ानूनी नहीं है लेकिन वेश्यालय संचालन एवं प्रबंधन गैर क़ानूनी है।
  • अनैतिक देह व्यापार अधि. 1954 की धारा 2f के तहत सार्वजनिक स्थान से 200 मीटर की त्रिज्या की दूरी पर वेश्यावृति मानी जायेगी अन्यथा अपराध। 
  • IPC की धारा 372 एवं 373 के तहत बाल वेश्यावृति प्रतिबंधित है।
  • नोट:वेश्यालय का संचालन एवं प्रबन्धन करने वाले लोगो को 7 से 10 वर्ष जा सकती है।


वेश्यावृति के पक्ष में तर्कः

  • बेहतर या गरिमामय जीवन
  • श्रम सम्बन्धी विधियों को लागू करना
  • स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधा उपलब्ध करवाना
  • नाबालिक कर्मियों को इससे बचाना
  • सरकार के समाज कल्याण कार्यकर्मों का लाभ प्रदान करना
  • आर्थिक सशक्तिकरण

विपक्ष में तर्कः(11:30:15 AM)

  • पितृसत्तात्मक मानसिकता
  • यौन शोषण का बाजारीकरण
  • संक्रमित बिमारियों के फैलने का भय
  • शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना
  • सभ्य समाज के ताने बाने के टूटने का खतरा

निष्कर्षः (11:38:25 AM)

  • पक्ष एवं विपक्ष के तर्कों तथा SC के हालिया निर्णयों के प्रकाश में सरकार से यह अपेक्षित है. कि वह पुलिस प्रशासन को संवेदनशील बनाये तथा जनचेतना और सामाजिक मनोवृति में सकारात्मक बदलाव लाकर संवैधानिक मूल्यों के दायरे में तर्कसम्मत नीति का निर्माण करें। 
  • अनैतिक देह व्यापार अधिनियम  1956 में आवश्यक सुधार करें।
  • नोट:यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सर्वोच्च न्यायलय ने वेश्यावृति में शामिल वेश्याओं को संरक्षण प्रदान किया न कि देह व्यापार को।

अनुच्छेद 23 का अपवादः

  • सैन्य सेवा एवं सामाजिक सेवाओं से सम्बंधित लोक महत्त्व के कार्यों को करने के लिए राज्य द्वारा बाध्य किया जा सकता है, परन्तु ऐसी स्थिति में धर्म, मूल वंश, जाति, वर्ग या इनमे किसी एक के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता परन्तु लिंग आधारित भेदभाव किया जा सकता है।

बाल श्रम (अनुच्छेद 24): (11:42:55 AM)

  • भारतीय संविधान के अनु. 24 में बाल श्रम के विरुद्ध प्रावधान दिया गया है।
  • इस प्रावधान के अनुसार 14 वर्ष के नीचे के बच्चो को कारखाने या किसी अन्य खतरनाक रोजगार क्षेत्र में नियोजन के लिए यदि लाया जाता है, तो वह असंवैधानिक होगा। 
  • राज्य से अपेक्षा की जाती है, कि वह बाल श्रम पर प्रतिबन्ध सुनिश्चित करें।
  • वर्ष 1996 में एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ के केस में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि किसी भी खतरनाक उद्योग में बच्चों का नियोजन प्रतिबंधित होगा।
  • नोट:वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 5 वर्ष से 14 वर्ष की आयु के लगभग 260 मिलियन बच्चें थें जिनमे से लगभग 10 मिलियन बच्चें बाल श्रमिक के रूप में कार्यशील थें (बच्चों की कुल जनसँख्या का लगभग 4%) इस जनगणना के अनुसार 43 मिलियन बच्चें विद्यालयों में पंजीकृत नहीं थे। 
  • संसद की स्थायी समिति ने सन 2023 में अपनी एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसका शीर्षक था 'राष्ट्रीय बाल श्रम - एक नीति का एक आंकलन'। 
  • इसके तहत समिति ने स्पष्ट किया कि भारत में बाल श्रमिकों की संख्या कम करने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में विशेष प्रयास करने होंगे । 
  • जिसमे बच्चों की आयु का निर्धारण करने का तरीका एक महत्वपूर्ण मुद्दा होगा।
  • समिति ने यह स्पष्ट किया कि बाल श्रम के विरुद्ध कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है।
  • इसके लिए बाल श्रम के विरुद्ध शून्य धैर्य रहते हुए अद्यतन आंकड़ें इक्कठा किये जाए।
  • बाल श्रमिक रखने वाले नियोजकों के विरुद्ध दंड की राशि 20 हजार से बढ़ाने पर विचार किया जाए।
  • समिति ने माना की राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसी पद्दति का विकास किया जाए जो बाल श्रमिकों को चिन्हित करने के कार्य में संघ एवं राज्य सरकार के बीच समन्वय स्थापित करे।
  • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने बाल श्रमिकों को चिन्हित करने के उद्देश्य से इसे परिभाषित करते हुए कहा कि:
  • ऐसी कोई भी स्थिति जो बच्चों के बचपन और उनकी गरिमा को समाप्त करती है तथा शारीरिक और मानसिक विकास को क्षति पहुंचाती है, उसे बाल श्रम की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
  • इस संगठन के अनुसार बाल श्रम का सर्वाधिक वीभत्स स्वरूप दासता, परिवार से पृथकता या वेश्यावृति या नशे में लिप्त होना है।
  • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की इस परिभाषा और क्षेत्र निर्धारण को ध्यान में रखते हुए भारत बाल श्रम के कारणों को निम्नलिखित आधार पर चिन्हित किया जा सकता है:
    • समाज में व्याप्त गरीबी, शिक्षा का अभाव, सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से पिछड़ापन, असंगठित अर्थव्यवस्था, विद्यालयी शिक्षा का अपर्याप्त होना प्रभावशाली विधियों का अभाव एवं बनायीं गयी विधियों को प्रभावशाली तरीके से लागू करने में असफलता।
  • नोटः उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र बाल श्रमिकों के सबसे बड़े नियोक्ता है।
  • बाल संख्या में वृद्धि होने से सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलता है:
    • बच्चों में शिक्षा ग्रहण करने की क्षमता समाप्त होना
    • अकुशल श्रमिकों की संख्या में वृद्धि
    • गरीबी का बढ़ना
    • प्रौद्योगिकी विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ना
    • बच्चों के स्वास्थ्य एवं विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ना
  • उपर्युक्त कारणों एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने समय-समय पर बाल श्रम को रोकने हेतु आवश्यक कदम उठाने की कोशिश की है।
  • 1979 के गुरुपद स्वामी समिति की सिफारिश पर बाल श्रमिक (प्रतिषेध एवं विनियमन) अधिनियम 1986 लागू किया। 2016 में इस अधिनियम में संशोधन करके सभी प्रकार के रोजगार में बाल श्रमिकों को शामिल करने को गैर क़ानूनी घोषित किया।
  • शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के माध्यम से बच्चों को शिक्षा देनें और संविधान के अनु. 51 A(k)  के तहत माता-पिता को बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयास किया गया है। 
  • उपर्युक्त प्रयासों के आलावा Platform for Effective Enforcement of No Child Labour (पेंसिल) को विकसित किया गया। 
  • इसका उद्देश्य यह है कि जिला प्रशासन और राज्य प्रशासन को भारत सरकार से जोड़ा जाए और नवीनतम आंकड़ों के आधार पर बाल श्रम को रोकने का सयुक्त प्रयास किया जाए। यह सुझाव दिया जाता है कि गैर सरकारी संगठनों का सहारा लेकर समाज में जागरूकता  और संवेदनशीलता का विकास किया जाए ताकि बाल श्रम को रोकने में समाज का सहयोग भी प्राप्त हो सके।

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28) : (12:21:02 PM)

  • भारतीय संविधान की प्रस्तावना के आदर्श शब्दों के अनुसार :
  • भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का समर्थन करता है और सैद्धांतिक दुरी के प्रारूप के अनुसार राज्य एवं लोगों को विनियमित करता है।
  • संविधान में धर्म शब्द की कोई परिभाषा नही है, डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अनु. 25 और 26 में निहित धर्म एवं धार्मिक मामले जैसे शब्दों की परिभाषा और इसकी व्याख्या की जिम्मेदारी न्यायपालिका पर छोड़ी थी।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने 1954 में रतिलाल बनाम बॉम्बे राज्य और शिरूर मठ केस में न्यायपालिका ने धर्म की व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया कि:
  • धर्म का सम्बन्ध विश्वास से है इसलिए धर्म की अवधारणा का आस्तिक एवं नास्तिक जैसे शब्दों से कोई संबंध नहीं है।
  • अनुच्छेद 25: इस अनुच्छेद के तहत धार्मिक स्वतंत्रता की विषयवस्तु को दो भागों में बांटा आया है, पहला विशिष्ट प्रतिबंधों के साथ धार्मिक स्वतंत्रता एवं दूसरा राज्य का हस्तक्षेप। 
  • अनुच्छेद 25 (1) के तहत सभी लोगों को अंतःकरण की स्वतंत्रता के साथ-साथ धार्मिक विश्वास की उद्धघोषणा करने उसके अनुसार आचरण करने और अपने धार्मिक विश्वास प्रचार प्रसार करने का अधिकार है।
  • नोट: लोक व्यवस्था, नैतिकता, स्वास्थ्य एवं संविधान के भाग-3 में दिए गए अन्य प्रावधानों के आधार पर आवश्यक प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।
  • उपर्युक्त प्रावधानों के आधार पर धार्मिक स्वतंत्रता के सम्बन्ध में इस निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है कि धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के दायरे में न सिर्फ धर्म सम्बन्धी विश्वास आते है, बल्कि उनसे सम्बंधित रीति-रिवाज भी इसमें शामिल हैं।
  • समय-समय पर न्यायपालिका द्वारा धार्मिक स्वतंत्रता के विभिन्न हिस्सों की व्याख्या की गई है :
  • जिसके अनुसार सिख धर्म के अनुयायी जहाँ एक तरफ कृपाण धारण कर सकते हैं (दिलावर सिंह बनाम हरियाणा राज्य 2016)। 
  • वहीं दूसरी तरफ जैन धर्म के अनुआयी संथारा या सल्लेखना जैसे रीति रिवाजों या प्रथाओं का पालन कर सकते हैं (निखिल सोनी केस 2015)। 
  • नोट:अनुच्छेद 25 के तहत हिन्दू धर्म की परिभाषा में सिख, जैन एवं बौद्ध धर्म के अनुयायी भी शामिल होते हैं।
  • सभी धर्म के लोगों को अपने धार्मिक विश्वास के प्रचार प्रसार का अधिकार है। परन्तु किसी अन्य धर्म का अपमान या अन्य धर्म के लोगों को भय, धोखा या लालच केआधार पर अपने धर्म शामिल करने का अधिकार नहीं है (रेव स्टैनिस्लॉस बनाम मध्य प्रदेश, 1977) इसका तात्पर्य हुआ कि धर्म परिवर्तन संवैधानिक रूप से मानी है, परन्तु भय, धोखा या लालच के आधार पर नहीं। 
  • अनुच्छेद 25 (2):इसके अनुसार राज्य द्वारा समाज सुधार को ध्यान रखते हुए धार्मिक गतिविधियों सम्बंधित आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक एवं अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों को नियंत्रित या विनियमित किया जा सकता है।
  • अनुच्छेद 25 (2) b के अनुसार राज्य द्वारा समाज कल्याण एवं समाज सुधार को ध्यान में रखते हुए लोक प्रकृति के हिन्दू धार्मिक संस्थाओं में हस्तक्षेप किया जा सकता है।
  • इसी आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने भुरीनाथ बनाम जम्मू कश्मीर राज्य 1997 के केस में SC ने स्पष्ट किया कि पूजारी की सेवा एक धर्म निरपेक्ष कार्य है और राज्य द्वारा विनियमित किया जा सकता है।
  • नोट: 1994 में यह निर्णय दिया गया था कि मस्जिद  इस्लाम धर्म का अभिन्न अंग नहीं है (स्माइल फारुकी केस)। 
  • नोट: 2023 में सर्वोच्च न्यायलय की खंडपीठ ने जलिकट्टू की सांस्कृतिक प्रथा को वैधानिक मान्यता दी (तमिलनाडू में यह लगभग 2000 वर्षों से मनाया जा रहा है)। 
  • तमिलनाडू, महाराष्ट्र और कर्नाटक लोगों द्वारा जानवरों के विरुद्ध क्रूरता के आधार पर इसका विरोध किया जा रहा था।

TOPICS FOR NEXT CLASS: धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार के अन्य  प्रावधानों  पर चर्चा जारी रहेगी